समय की अलगनी पर
अब भी लटके पड़े हैं
मेरे द्वारा उतारे गए
कितने जिस्म
जो लोगों को कपड़े दिखते हैं
एक जिस्म वह है
जो छोड़ आया था
माँ की स्नेहिल क़दमों के तले
जो अब तक सिसक रहा है
वहीं पड़े
एक जिस्म वह जो
अब तक रोता है
बाप की छाती से लगकर कि
मैंने कुछ बनने का
वायदा किया था
दूर से आती है
मेरे अरमानों के सिसकने की आवाजें
वहीं मेज पर पड़ी है
मेरी पहली कमाई से
खरीदी गई शाँल
जो पिता के लिए थी, जिसे
ओढ़कर भईया अब भी देखते हैं मुझे
जब तब
आदमी की तो फितरत है
क्यों समय!
अब तुम भी
कपड़े बदलने लगे
Thursday, June 5, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
bahut acchi kavita hai
good, very good.
as i always said blog is the democratizing agent in new world order which has the inclusive character different from current media empire.
pariwaar se duri ka marm aur samay par teekha vyang. wah!!
"aadmi ki to fitrat hai, kyon samay ? ab tum bhi kapde badalne lage"
amit yah tumhaari ek aur achchhi kavita hai. ........ pyaar
Post a Comment