Tuesday, June 3, 2008

द्वंद्व


एक बूंद पानी ठहरा है

नम आंखों की कोरों में

और एक उजाला दूर... तक

फटता चला जाता है

अंधेरे में बदल जाने तक


एक चिपटा सा ख्वाब

सच्चाई से और दबा

चला जाता है

और जोर से

कुलबुलाता है

उसमें बची एक बूंद का

पृष्ठिय तनाव

काश्मीर


एक आंच ठहरी है

सतरंगी सपने वाले पेड़ों की ज़ड़ों में

और डालों पर लगते हैं

आग के फूल

रक्ताभ लाल


सोचता हूँ

इन आग के फूलों वाले

काफिर पेड़ों को जब तक

मुसलमान बनाया जाएगा

झड़ ही जायेंगे पेड़ के फूल

तब ठूंठों की जमात से

कौन सा कलमा पढ़ाया जाएगा ?


आख़िर किसी भी धर्म में

मर्सिया... कलमा तो नहीं होता

पीले गुलाबों का रंग

चम्पई धूप में खिले
पीले गुलाबों का रंग
इन आंखों से कबका उतर जाता
गर उनसे जुड़ी
तुम्हारी यादें न होतीं

सच है
पुराने मौसमों में खिले
फूलों के रंग
कभी नही जाते हैं