Monday, August 4, 2008
चवन्नी में चाँद
चाँद चमकता है
आसमान पर
और चवन्नी हथेली में
माँ बताती है
बचपन में चवन्नी खर्चते हुए
हथेली अक्सर आसमान हो जाती थी
आज जब ढूँढने पर भी
नहीं मिलती चवन्नी
और फ्लैटों की
उँचाइयों के पीछे
रोज बिसूरता है
चंदा मामा
तब सोचता हूँ
हाथों में चवन्नी भींचे
पहले लगता था कि
इस चवन्नी में ही
खरीद लूँगा
फोफी, लेमनचूस, दिलखुशार रेवड़ी,
पॉपिन्स, फिरनी, नानी के लिए पान
और...
कभी आधा
तो कभी
पूरा चाँद
अब जब बच्चे
मांगते हैं टेडी बियर, लेज़र गन,
कृष के खिलौने, वीडियोगेम
और एन्साइक्लोपीडिया की सीडी
तब घबराता हूँ
क्या आने वाली पीढ़ी
ढूंढ पायेगी
विकिपीडिया में
चँदा मामा के किस्से?
कैसे समझाऊंगा उन्हें
क्या है
चवन्निया मुस्कान
जब नहीं रहेगी
चवन्नी और
भाग जाएगा
बच्चों के पलकों पर
पांव रखकर
सपनों का चाँद
और तो और
मैं तो यह भी नहीं
बता पाउँगा कि
कभी चवन्नी में ही
पा जाते थे चाँद
Tuesday, July 15, 2008
बानगी
जिंदगी जीने वाले उस्ताद कई
हम ही नहीं हैं फिर भी बर्बाद कई
एक बार जो दिखा दी हमने बानगी
रुक कर करेंगे मेरा भी इंतजार कई
हम ही नहीं हैं फिर भी बर्बाद कई
एक बार जो दिखा दी हमने बानगी
रुक कर करेंगे मेरा भी इंतजार कई
Friday, June 20, 2008
अन्तर
अच्छा लगता है
देखना
जब तुम निश्छल हंसती हो
तुम्हारी हँसी
अच्छी है
क्योंकि यह
मांगी हुई
नहीं लगती
मेरी हँसी
थोडी मायूस है
रोने के किश्त पर
उधार पर
लाया हूँ
देखना
जब तुम निश्छल हंसती हो
तुम्हारी हँसी
अच्छी है
क्योंकि यह
मांगी हुई
नहीं लगती
मेरी हँसी
थोडी मायूस है
रोने के किश्त पर
उधार पर
लाया हूँ
Wednesday, June 18, 2008
Thursday, June 5, 2008
कपड़े
समय की अलगनी पर
अब भी लटके पड़े हैं
मेरे द्वारा उतारे गए
कितने जिस्म
जो लोगों को कपड़े दिखते हैं
एक जिस्म वह है
जो छोड़ आया था
माँ की स्नेहिल क़दमों के तले
जो अब तक सिसक रहा है
वहीं पड़े
एक जिस्म वह जो
अब तक रोता है
बाप की छाती से लगकर कि
मैंने कुछ बनने का
वायदा किया था
दूर से आती है
मेरे अरमानों के सिसकने की आवाजें
वहीं मेज पर पड़ी है
मेरी पहली कमाई से
खरीदी गई शाँल
जो पिता के लिए थी, जिसे
ओढ़कर भईया अब भी देखते हैं मुझे
जब तब
आदमी की तो फितरत है
क्यों समय!
अब तुम भी
कपड़े बदलने लगे
अब भी लटके पड़े हैं
मेरे द्वारा उतारे गए
कितने जिस्म
जो लोगों को कपड़े दिखते हैं
एक जिस्म वह है
जो छोड़ आया था
माँ की स्नेहिल क़दमों के तले
जो अब तक सिसक रहा है
वहीं पड़े
एक जिस्म वह जो
अब तक रोता है
बाप की छाती से लगकर कि
मैंने कुछ बनने का
वायदा किया था
दूर से आती है
मेरे अरमानों के सिसकने की आवाजें
वहीं मेज पर पड़ी है
मेरी पहली कमाई से
खरीदी गई शाँल
जो पिता के लिए थी, जिसे
ओढ़कर भईया अब भी देखते हैं मुझे
जब तब
आदमी की तो फितरत है
क्यों समय!
अब तुम भी
कपड़े बदलने लगे
Tuesday, June 3, 2008
द्वंद्व
काश्मीर
पीले गुलाबों का रंग
चम्पई धूप में खिले
पीले गुलाबों का रंग
इन आंखों से कबका उतर जाता
गर उनसे जुड़ी
तुम्हारी यादें न होतीं
सच है
पुराने मौसमों में खिले
फूलों के रंग
कभी नही जाते हैं
पीले गुलाबों का रंग
इन आंखों से कबका उतर जाता
गर उनसे जुड़ी
तुम्हारी यादें न होतीं
सच है
पुराने मौसमों में खिले
फूलों के रंग
कभी नही जाते हैं
Monday, June 2, 2008
नियति
मैं तुमसे मिलूंगा
इतिहास के पन्नों में दर्ज होने से पहले
यह मेरा वादा है
पर ठीक ऐसा का ऐसा ही
यह कहना आज थोड़ा कठिन है, कल
नामुमकिन होगा
तुम्हारे काले घने बालों के अनंत में
जब एक अनाम रिश्ते का सूरज
अंगुलियों सा सिहरेगा
तब ठूंठ हो चुकी रिश्ते की शाख पर
मैं एक पीला गुलाब तब भी बचाए रखूंगा
पर यह कहना आज थोड़ा कठिन है, कल
शायद नामुमकिन हो कि
मैं तब भी बचा पाउँगा
अपनी हथेली में सपने और
तुम्हारी गर्म गालों का एहसास
तब शायद मेरे टूटे जूते में ही हो जाए
पूरी की पूरी बरसात
इतिहास के पन्नों में दर्ज होने से पहले
यह मेरा वादा है
पर ठीक ऐसा का ऐसा ही
यह कहना आज थोड़ा कठिन है, कल
नामुमकिन होगा
तुम्हारे काले घने बालों के अनंत में
जब एक अनाम रिश्ते का सूरज
अंगुलियों सा सिहरेगा
तब ठूंठ हो चुकी रिश्ते की शाख पर
मैं एक पीला गुलाब तब भी बचाए रखूंगा
पर यह कहना आज थोड़ा कठिन है, कल
शायद नामुमकिन हो कि
मैं तब भी बचा पाउँगा
अपनी हथेली में सपने और
तुम्हारी गर्म गालों का एहसास
तब शायद मेरे टूटे जूते में ही हो जाए
पूरी की पूरी बरसात
जंगल, शहर या मैं
मैं एक जलता हुआ पेड़
मुझे निर्वासित किया है जंगल ने
जलने के डर से
अब रोज मुझमे एक जंगल जलता है
शहर पैदा होता है
फिर शहर फैलता है मुझमें
जंगल बनता है
इसी तरह मैं जीवित रहता हूँ
मैं जीवित रहता हूँ
इसलिए जलता हूँ
मैं जंगल, शहर या फिर
दोनों में ही
मरता हुआ पेड़ हूँ
मुझे निर्वासित किया है जंगल ने
जलने के डर से
अब रोज मुझमे एक जंगल जलता है
शहर पैदा होता है
फिर शहर फैलता है मुझमें
जंगल बनता है
इसी तरह मैं जीवित रहता हूँ
मैं जीवित रहता हूँ
इसलिए जलता हूँ
मैं जंगल, शहर या फिर
दोनों में ही
मरता हुआ पेड़ हूँ
Friday, May 30, 2008
ऐ इन्द्रधनुष
तुम्हारे चेहरे पर
पकती धूप
फिर गुनगुनाई है
पत्थरों के माथे पर
पसीने की बूंदे
थिरक आई है
ये क्या कहा है
तुमने गुलशन से
फूलों की रंगत
फिर शरमाई है
एक बार जो रंग
तुम मुझे भी दो उधार
बाँट दूँ दुनिया मे
रंग- ए- प्यार
ऐ इन्द्रधनुष
कभी तो
मेरे पते पर भी आ
पकती धूप
फिर गुनगुनाई है
पत्थरों के माथे पर
पसीने की बूंदे
थिरक आई है
ये क्या कहा है
तुमने गुलशन से
फूलों की रंगत
फिर शरमाई है
एक बार जो रंग
तुम मुझे भी दो उधार
बाँट दूँ दुनिया मे
रंग- ए- प्यार
ऐ इन्द्रधनुष
कभी तो
मेरे पते पर भी आ
Wednesday, February 13, 2008
NASTIK
Tuesday, February 12, 2008
KAVITA, NAMAK AUR TUM
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